
द्रूवड़ी पूजन का शुभ समय 03 सितम्बर शनिवार दोपहर 12.29 से बाद पूरा दिन शुभ मुहूर्त रहेगा।
द्रूवड़ी पूजन के लिए मूँग,चने आदि भिगोने शुभ मुहूर्त 02 सितंबर शुक्रवार सुबह 06:10 के बाद पूरा दिन शुभ है।
जम्मू कश्मीर : जम्मू संभाग में विशेष महत्व रखने वाली दूर्वाष्टमी (द्रूवड़ी) का व्रत 03 सितंबर शनिवार को है,जम्मू में इस व्रत को ‘द्रूवड़ी’ के नाम से जाना जाता है,यह व्रत वंशवृद्धि,सन्तान की मंगलकामना एवं सन्तान सुख के लिए किया जाने वाला व्रत है। द्रूवड़ी व्रत के विषय में श्री कैलख ज्योतिष एवं वैदिक संस्थान ट्रस्ट के प्रधान ज्योतिषाचार्य महंत रोहित शास्त्री ने बताया द्रूवड़ी का पर्व जम्मू में पारंपरिक हर्षोल्लास और आस्था के साथ मनाया जाता है और यह हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है द्रूवड़ी पूजन का शुभ मुहूर्त 03 सितंबर शनिवार दोपहर 12.29 के बाद शुरू होगा। शनिवार 03 सितंबर को दोपहर 12.29 से भद्रा भी शुरू होगी और रात्रि 11 बजकर 35 मिनट पर समाप्त होगी,धर्मग्रंथों के अनुसार जब चंद्रमा मेष,वृष,मिथुन,वृश्चिक राशि में रहे तो भद्रा स्वर्ग लोक की होती है। भद्रा जब स्वर्ग लोक की होती है तो आप शुभ कार्य कर सकते हैं, शनिवार 03 सितंबर को भद्रा वृश्चिक राशि में होगी, इसलिए दूर्वाष्टमी (द्रूवड़ी) पूजन पर भद्रा का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
द्रूवड़ी के दिन महिलाएं और नवविवाहिताए इस व्रत को करती है और सरोवर अथवा बहते पानी वाले स्थानों पर जाकर पूजन करती है और संतान एवं परिवार की सुख समृद्धि मांगती है। इसमें पारंपरिक गीत गाती हैं। इसके अलावा पूजन में मीठे रोट,दूर्वा,अंकुरित मोठ, मूँग,चने फल एवं वस्त्र आदि चढ़ाया जाता है और पूजन में छोटे बच्चों को पूजन स्थल पर उठाकर परिक्रमा करवाते है। इस व्रत में श्रीगणेश जी एवं श्रीलक्ष्मीनारायण का पूजन किया जाता है। दूर्वाष्टमी का व्रत करने से सुख,सौभाग्य व दूर्वा के अंकुरों के समान उसके कुल की वृद्धि होती हैं।
द्रूवड़ी पूजन के लिए मूँग,चने आदि भिगोने शुभ मुहूर्त 02 सितंबर सुबह 06:10 के बाद पूरा दिन शुभ है।
यह व्रत विशेष रुप से स्त्रियों का पर्व होता है। इस दिन अंकुरित मोठ, मूँग, तथा चने आदि को भोजन में उपयोग किया जाता है और प्रसाद रुप में इन्हें ही चढाया जाता है। सारा दिन व्रत रखकर रात्रि में पूजन कर फिर दूर्वाष्टमी की कथा सुनकर भोजन करें।
धर्मग्रंथों के अनुसार समुद्र-मन्थन के समय भगवान श्रीविष्णु जी ने मन्दराचल पर्वत को अपनी जंघा पर धारण किया था। मन्दराचल की रगड़ से भगवान के असंख्य रोम उखड़ कर समुद्र मे गिर गये।वही रोम लहरों द्वारा भूमि पर आकर दूर्वा के रूप मे उत्पन्न हुए। बाद मे इसी दूर्वा पर अमृत-कलश रखा गया। उस समय अमृत की कुछ बूँदें उस पर गिर गयीं। इससे दूर्वा अजर-अमर हो गयी। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन देवताओं ने गंध, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, नारियल, अक्षत से दूर्वा का पूजन किया था, इसलिए हर साल, इसी दिन दूर्वाष्टमी का व्रत रखा जाता है।
महंत रोहित शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) प्रधान श्री कैलख ज्योतिष एवं वैदिक संस्थान ट्रस्ट(पंजीकृत) रायपुर ठठर जम्मू कश्मीर।संपर्कसूत्र:9858293195,7006711011,9796293195.ईमेल : rohitshastri.shastri1@gmail.